मुशायरा की जब बात आती तो हम सब के मन एक ही ख्याल आता है राहत इन्दोरी या मुनव्वर राणा जब हिंदुस्तान की बात आती है तो राहत की यह सायरी बहुत पढ़ने को मिलती है
और जब माँ की बात आती है तो मुनव्वर राना जी की यह सायरी बहुत पढ़ी जाती है
लेकिन आज हम बात कर रहे हैं उस सख्सियत की जो किसी पहचान की मौहताज नही जी हां हम बात कर रहे हैं राही वास्तवि जी की जो नातिया मुशायरो में उन्होंने नज्म पढ़ी वो सायद ही अब कभी सुनने को मिलेगा आइये पढ़ते हैं उनके कुछ अल्फाज जो दिल मे इस्लाम के प्रति इत्तिहाद पैदा करते हैं
याद आई हैं अपनी खताइयें जब ख़ुदा का खयाल आगया है मेरे बेचैन दिल को वहीं पर मुस्तफा का खयाल आगया है
ये तो मरयम भी है हाजरा भी नेक खातून हैं आशय भी बात जब आगयी है हाया की अरे फातिमा का खयाल आगया है
मैने जब नाथ के आशआन से बातें की हैं यूं लगा है मुझे अहमद-ए-मुख्तार से बातें की हैं
उसकी तारीफ में अल्फ़ाज़ भी कम पड़ जाएं जिसके एक सज्दे में तलवार से बातें की हैं
क्यों न वो रहमते आलम हो जमाने के लिए जिसके किरदार ने संसार से बातें की है
कहदो अब हुकूमत से डूब जाएं पानी में बेटियां भी लुटती हैं अपनी राजधानी में
जहां जमाना मुसीबत में डाल देता है कर्म तुम्हारा वहीं पर संभाल देता है
तेरा सावन बिता जाइ मोरा सावन बिता जाए तेरे लिए उड़ कर आऊंगा चंद रहे या जाए ✍️ फुरकान एस खान की कलम से
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लगेगी आग तो आएंगे कई घर जद में यहां सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है
सभी का खून सामिल है यहां की मिट्टी में किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी
और जब माँ की बात आती है तो मुनव्वर राना जी की यह सायरी बहुत पढ़ी जाती है
लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होतीबस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती
अब भी चलती है जब आँधी कभी ग़म की ‘राना’माँ की ममता मुझे बाहों में छुपा लेती है
लेकिन आज हम बात कर रहे हैं उस सख्सियत की जो किसी पहचान की मौहताज नही जी हां हम बात कर रहे हैं राही वास्तवि जी की जो नातिया मुशायरो में उन्होंने नज्म पढ़ी वो सायद ही अब कभी सुनने को मिलेगा आइये पढ़ते हैं उनके कुछ अल्फाज जो दिल मे इस्लाम के प्रति इत्तिहाद पैदा करते हैं
याद आई हैं अपनी खताइयें जब ख़ुदा का खयाल आगया है मेरे बेचैन दिल को वहीं पर मुस्तफा का खयाल आगया है
ये तो मरयम भी है हाजरा भी नेक खातून हैं आशय भी बात जब आगयी है हाया की अरे फातिमा का खयाल आगया है
जुल्म का जबर का सिसिला था एक तरफ सबर का सिसिला था बात जब हक़ व बातिल की आयी कर्बला का खयाल आगया है
मैने जब नाथ के आशआन से बातें की हैं यूं लगा है मुझे अहमद-ए-मुख्तार से बातें की हैं
ए-मेरे-प्यारे तखयुल तेरे सदक़े जवां तूने अख़्सर मेरे सरकार से बातें की हैं
उसकी तारीफ में अल्फ़ाज़ भी कम पड़ जाएं जिसके एक सज्दे में तलवार से बातें की हैं
इश्क़-ए-सरकार में यह हाल हुआ है अक्सर मैंने घर के दरों दीवार से बातें की हैं
क्यों न वो रहमते आलम हो जमाने के लिए जिसके किरदार ने संसार से बातें की है
अपनी उल्फत यह काम करती है हर नजर एहतराम करती है जो नबी पर सलाम पढ़ते हैं उनको दुनिया सलाम करती है
कहदो अब हुकूमत से डूब जाएं पानी में बेटियां भी लुटती हैं अपनी राजधानी में
आज के जमाने में सब वही तो होता है वाक़या जो पढ़ते थे हम किसी कहानी में
जहां जमाना मुसीबत में डाल देता है कर्म तुम्हारा वहीं पर संभाल देता है
वो खुद को जीते जी दोजख में डाल देता है जो बूढ़े बाप को घर से निकल देता है
दुवाएँ माँ की जो लेकर चला है साहिल से वो डूब जाइ तो दरया उछाल देता है कर्म तुम्हारा वहीं पर संभाल देता है
तेरा सावन बिता जाइ मोरा सावन बिता जाए तेरे लिए उड़ कर आऊंगा चंद रहे या जाए ✍️ फुरकान एस खान की कलम से
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